शनिवार, 16 अप्रैल 2011

कागज़

बहता रहता हूँ मै

अपनी कुर्सी पे बैठे बैठे

मेरी मेज़ पे बिखरे कागज़ 
उड़ते हुए जाना चाहते हैं

जैसे आजाद होना चाहते हों

मै उन्हें मोड़ कर
रद्दी की टोकरी में ड़ाल देता हूँ

जैसे कुचल देता है तूफ़ान 
रास्ते में आने वाली हर चीज़ को

मेरी कलम के रंग उन कागजों से 
झाँक कर मुझे मुँह चिढाते हैं

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