दिसम्बर का महीना
सर्दी की हल्की हल्की शुरुआत
ठिठुरते हुए कांपती सड़को पर
चलता रहता लोगों का हुजूम
कुछ जज्बा होता है जो चलने को मजबूर
करता है
वरना दिल तो यही करता है कि
घर में बैठ कर एक लिहाफ में बैठे हुए
सूरज को ढलते , उगते देखूं
शाम को बालकॉनी में बैठ के पकोड़ो संग
चाय कि चुस्कियां लूं
कुछ वैसे ही जैसे कुछ अरसा पहले किया करता था
जब ना आज जैसी भाग दौड़ थी
ना कोई फ़िक्र ना कोई वादा
कुछ नहीं
बस खुद के लिए
खुद के साथ
महसूस कर रहा होता था मै ज़िन्दगी को
गौर करता था मै हर छोटी बात
वो बात जो अहमियत रखती थी
मेरे जिस्म के लिए नहीं
मेरी रूह के लिए
पर कुछ को अच्छा नहीं लगता
इतना ख्याल
पर मुझे कैसा लगता है
मै सोच लेता हूँ बैठे बैठे फुर्सत में
अजीब है सब कुछ
बहुत अजीब..
बुधवार, 29 दिसंबर 2010
गुरुवार, 23 दिसंबर 2010
कविता
कह दो तुम भी कह दें हम भी
ऐसी क्या मजबूरी है
राज़ी तुम हो राज़ी हम हैं
फिर काहें की दूरी है
अनजानी राहों पर चल के
अनदेखे सपने ढूंढेंगे
तुमको खुद को और फिर चल के
हम भी खुदा को ढूंढेंगे
बदलेगा सब वक़्त हमारा
जो अच्छा होना होगा
फूल नए खिल आयेंगे फिर
बीज नए बोना होगा
ऐसी क्या मजबूरी है
राज़ी तुम हो राज़ी हम हैं
फिर काहें की दूरी है
अनजानी राहों पर चल के
अनदेखे सपने ढूंढेंगे
तुमको खुद को और फिर चल के
हम भी खुदा को ढूंढेंगे
बदलेगा सब वक़्त हमारा
जो अच्छा होना होगा
फूल नए खिल आयेंगे फिर
बीज नए बोना होगा
कविता
दिल कि बातें दिल में रखो
दिल को मत समझाओ तुम
बात बड़ी हो या हो छोटी
उस से दिल ना लगाओ तुम
उलझो तो फिर सुलझाओ
रूठो जब फिर मनाओ तुम
मेरे आगे मेरे पीछे
आओ ना फिर जाओ तुम
दिल को मत समझाओ तुम
बात बड़ी हो या हो छोटी
उस से दिल ना लगाओ तुम
उलझो तो फिर सुलझाओ
रूठो जब फिर मनाओ तुम
मेरे आगे मेरे पीछे
आओ ना फिर जाओ तुम
बुधवार, 22 दिसंबर 2010
ग़ज़ल
बहुत दिन बाद आएगी मुझे चैन की नींद
आज मालूम हुआ मुझे कि अब खोने को कुछ ना रहा
मेरे आंसूं भी आज हैरान है मुझे देख कर
जाने क्या हुआ जो अब रोने को कुछ ना रहा
तुम्हारा बाद अब बस इतनी आसानी है मुझे
अब कोई ख्वाब संजोने को कुछ ना रहा
बहुत हल्का है अब उम्मीदों का बोझ
एक बोझ उतर गया तो अब ढोने को कुछ ना रहा
पता नहीं
बहुत अजीब लगता है
अपने हाथ कुछ अपना उजाड़ना
सिर्फ इसलिए कि कहीं नयी ज़मीन पर
कुछ नया बसाना हो
पर क्या करें कि
कभी हालात सुधारने के लिए
कुछ मुश्किल फैसले लेने पड़ते हैं
शायद उसमे भी नुक्सान अपना ही होगा
मगर नफे नुक्सान कि परवाह करना एक बात
है, और
हर रोज़ दोराहे पर खड़े हो के फैसले
करना दूसरी बात
बस यही लगता है कि आगे बढ़ने का नाम ही
ज़िन्दगी है
पता नहीं
पता नहीं
क्या ऐसा सिर्फ मुझे लगता है?
अपने हाथ कुछ अपना उजाड़ना
सिर्फ इसलिए कि कहीं नयी ज़मीन पर
कुछ नया बसाना हो
पर क्या करें कि
कभी हालात सुधारने के लिए
कुछ मुश्किल फैसले लेने पड़ते हैं
शायद उसमे भी नुक्सान अपना ही होगा
मगर नफे नुक्सान कि परवाह करना एक बात
है, और
हर रोज़ दोराहे पर खड़े हो के फैसले
करना दूसरी बात
बस यही लगता है कि आगे बढ़ने का नाम ही
ज़िन्दगी है
पता नहीं
पता नहीं
क्या ऐसा सिर्फ मुझे लगता है?
मंगलवार, 21 दिसंबर 2010
ये शाम
एक कप काफी और तुम्हारा साथ
बस इतना हो तो वक़्त अच्छा गुज़रता है
कोई और ख्वाहिश नहीं होती उस वक़्त
बस तुम्हे देखने को जी करता है
तुम्हारी पलकों का गिरा एक हिस्सा
खींच लाता है मेरे हाथों को
तुम्हारी इधर उधर देखती नज़रें
और झूठा गुस्सा
दिल में ढेर सारा प्यार उमड़ आता है
ये सब इसलिए नहीं होता की तुम मेरी हो
बल्कि इसलिए की तुम्हारा कुछ वक़्त सिर्फ मेरा है
ज़िन्दगी की हज़ार शामों में ये शाम अलग है
और शायद हमेशा इतनी ही अलग होगी...
बस इतना हो तो वक़्त अच्छा गुज़रता है
कोई और ख्वाहिश नहीं होती उस वक़्त
बस तुम्हे देखने को जी करता है
तुम्हारी पलकों का गिरा एक हिस्सा
खींच लाता है मेरे हाथों को
तुम्हारी इधर उधर देखती नज़रें
और झूठा गुस्सा
दिल में ढेर सारा प्यार उमड़ आता है
ये सब इसलिए नहीं होता की तुम मेरी हो
बल्कि इसलिए की तुम्हारा कुछ वक़्त सिर्फ मेरा है
ज़िन्दगी की हज़ार शामों में ये शाम अलग है
और शायद हमेशा इतनी ही अलग होगी...
सोमवार, 20 दिसंबर 2010
कमबख्त
साली उधार की ज़िन्दगी
कौन कहता ये अपनी है
ये तो लीज़ पे मिली है
कई सारी शर्तों के साथ
हर महीने किराया मांगती है
कौन कहता ये अपनी है
ये तो लीज़ पे मिली है
कई सारी शर्तों के साथ
हर महीने किराया मांगती है
रविवार, 19 दिसंबर 2010
लफ्ज़
बस कुछ लिखने ही तो बैठा था
मगर ये क्या कि आज लफ्ज़ भी
धोखा दे रहे हैं
जैसे वो भी मेरे अपने ना रहे
वैसे तो हर घड़ी मेरे ज़ेहन में
टकराते रहते है
पर जाने क्यों
जिस वक़्त उनकी ज़रुरत रहती है
वो मुझसे मुँह मोड़ जाते है
जैसे कोई उनको मेरे खिलाफ भड़का देता है
या वो मेरी उनकी लिए
दिखाई गयी बेरुखी का
बदला लेते है
जो भी बात हो
मुझे उस वक़्त वो बहुत सताते हैं
फिर जब थोड़ा सननाटा होता है
रात के आखिरी पहर
फिर जैसे उनको घर की याद
आती है
और वो वापस मेरे ज़ेहन में आ जाते है
और एक
झपकी ले लेते हैं
मगर ये क्या कि आज लफ्ज़ भी
धोखा दे रहे हैं
जैसे वो भी मेरे अपने ना रहे
वैसे तो हर घड़ी मेरे ज़ेहन में
टकराते रहते है
पर जाने क्यों
जिस वक़्त उनकी ज़रुरत रहती है
वो मुझसे मुँह मोड़ जाते है
जैसे कोई उनको मेरे खिलाफ भड़का देता है
या वो मेरी उनकी लिए
दिखाई गयी बेरुखी का
बदला लेते है
जो भी बात हो
मुझे उस वक़्त वो बहुत सताते हैं
फिर जब थोड़ा सननाटा होता है
रात के आखिरी पहर
फिर जैसे उनको घर की याद
आती है
और वो वापस मेरे ज़ेहन में आ जाते है
और एक
झपकी ले लेते हैं
ग़ज़ल
हर घड़ी तुम्हारा झगड़ना भुला ना पाउँगा
जहाँ भी जाऊंगा ये याद ले के जाऊंगा
मेरा मोल मुझे खो कर ही समझ पाओगे
जब तुम बुलाओगे मै ना आऊंगा
कई बार होता है कुछ जो समझ नहीं आता
दास्ताँ फिर ना मै अब ये सुनाऊंगा
जहाँ भी जाऊंगा ये याद ले के जाऊंगा
मेरा मोल मुझे खो कर ही समझ पाओगे
जब तुम बुलाओगे मै ना आऊंगा
कई बार होता है कुछ जो समझ नहीं आता
दास्ताँ फिर ना मै अब ये सुनाऊंगा
कहीं कुछ बात तो नहीं ...
बड़े खामोश दिखते हो
कहीं कुछ बात तो नहीं
ऐसा तो नहीं
कि कोई तूफ़ान आ के गुज़र गया हो
या फिर
ये किसी तूफ़ान के आने के पहले
कि ख़ामोशी है
सिर्फ आज क्यों
आज का दिन चुनने कि कोई खास वजह
क्या आज ही के दिन पिछली बार कुछ
अच्छा हुआ था
जिसकी याद आज फिर आ रही है
मुझे पता है तुम्हे कुछ नहीं कहना
और तुम कुछ बोलोगे भी नहीं
पर मेरा दिल कहाँ मानता है
मै तो पूछ पडूंगा
भले तुम जवाब दो ना दो
बोलो
कहीं कुछ बात तो नहीं
ऐसा तो नहीं
कि कोई तूफ़ान आ के गुज़र गया हो
या फिर
ये किसी तूफ़ान के आने के पहले
कि ख़ामोशी है
सिर्फ आज क्यों
आज का दिन चुनने कि कोई खास वजह
क्या आज ही के दिन पिछली बार कुछ
अच्छा हुआ था
जिसकी याद आज फिर आ रही है
मुझे पता है तुम्हे कुछ नहीं कहना
और तुम कुछ बोलोगे भी नहीं
पर मेरा दिल कहाँ मानता है
मै तो पूछ पडूंगा
भले तुम जवाब दो ना दो
बोलो
बड़े खामोश दिखते हो
कहीं कुछ बात तो नहीं?
शनिवार, 18 दिसंबर 2010
गुरुवार, 16 दिसंबर 2010
ग़ज़ल
एक तुमसे ही कुछ उम्मीद थी पर ये क्या जाना
आज तुमने भी कह दिया कि अब नज़र ना आना
लोग ज़ालिम है उन के ताने मैंने सुन थे लिए
तू तो अपना था मगर तूने मुझे क्या जाना
अब खोने को बचा क्या है ,अब है कैसा डर
जो खोया तुमको तो अब मुझको है क्या पाना
आज तुमने भी कह दिया कि अब नज़र ना आना
लोग ज़ालिम है उन के ताने मैंने सुन थे लिए
तू तो अपना था मगर तूने मुझे क्या जाना
अब खोने को बचा क्या है ,अब है कैसा डर
जो खोया तुमको तो अब मुझको है क्या पाना
ग़ज़ल
मुझे बस इतना कहना है कि मुझे बोलने दो
मेरी बात भी सुन लो कभी खुदा के लिए
बरस पड़ो ना मुझ पे, ना गरजो बादल की तरह
मेरी राय भी ले लो कभी सजा के लिए
बला का ज़ोर है तूफ़ान में जब वो उठता है
मेरी रूह तड़पती है जब वफ़ा के लिए
मेरी बात भी सुन लो कभी खुदा के लिए
बरस पड़ो ना मुझ पे, ना गरजो बादल की तरह
मेरी राय भी ले लो कभी सजा के लिए
बला का ज़ोर है तूफ़ान में जब वो उठता है
मेरी रूह तड़पती है जब वफ़ा के लिए
शहर...
कुछ शहर अपने साथ
अपने रहने वालों को भी
बदल देते हैं
बाहर निकलने पे जैसे सारा कीचड़
चिपक जाता है खुद से
वो थोड़ी नफरत जो गन्दगी देख के
आती है दिल में
या कुछ भिखारियों को देख के दुनिया की लोगों
के लिए बेरुखी
वो शहर अपने में ही एक ज़िन्दगी जीता रहता है
हर पल कुछ नए लोग आते हैं शहर की ज़िन्दगी में
कुछ रोज़ छोड़ के जाते हैं
पर वो कभी कुछ नहीं कहता हम इंसानों की तरह
लेकिन उस के साथ रह के
उसकी आदतों के साथ जीते जीते
हर इंसान कुछ जुटा लेता है अपने लिए
और वो शहर भी कभी कुछ मांग लेता है
और कभी छीन लेता है सब कुछ
अपने रहने वालों को भी
बदल देते हैं
बाहर निकलने पे जैसे सारा कीचड़
चिपक जाता है खुद से
वो थोड़ी नफरत जो गन्दगी देख के
आती है दिल में
या कुछ भिखारियों को देख के दुनिया की लोगों
के लिए बेरुखी
वो शहर अपने में ही एक ज़िन्दगी जीता रहता है
हर पल कुछ नए लोग आते हैं शहर की ज़िन्दगी में
कुछ रोज़ छोड़ के जाते हैं
पर वो कभी कुछ नहीं कहता हम इंसानों की तरह
लेकिन उस के साथ रह के
उसकी आदतों के साथ जीते जीते
हर इंसान कुछ जुटा लेता है अपने लिए
और वो शहर भी कभी कुछ मांग लेता है
और कभी छीन लेता है सब कुछ
शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010
ग़ज़ल
मेरे दिल से तेरा दिल कुछ करीब सा है
मुझसे तेरा ये रिश्ता कुछ अजीब सा है
ये तो बस समझने का फर्क है वरना
कोई दोस्त लगता है,कोई रकीब सा है
कुछ तो फर्क है जो दोनों अलग से हैं
तू खुशनसीब सा है,वो बदनसीब सा हैं
मुझसे तेरा ये रिश्ता कुछ अजीब सा है
ये तो बस समझने का फर्क है वरना
कोई दोस्त लगता है,कोई रकीब सा है
कुछ तो फर्क है जो दोनों अलग से हैं
तू खुशनसीब सा है,वो बदनसीब सा हैं
क़ैद
बस वही रुको
हिलना नहीं
हाँ, बिलकुल ऐसे ही
रुको तो
बस थोड़ी देर और
नहीं नहीं ऐसे नहीं
बस अब मैंने क़ैद कर लिया तुमको
अपनी नज़रों में
हिलना नहीं
हाँ, बिलकुल ऐसे ही
रुको तो
बस थोड़ी देर और
नहीं नहीं ऐसे नहीं
बस अब मैंने क़ैद कर लिया तुमको
अपनी नज़रों में
मुझे सुन.ना है
तुम कुछ मत सोचो
कुछ काम मेरे हिस्से ही अच्छे लगते हैं
तुम बस कहो
वो सब कुछ जो तुम्हे पसंद है
मुझे सुन.ना है ,सब कुछ आज
कितने दिन हुए
कुछ काम मेरे हिस्से ही अच्छे लगते हैं
तुम बस कहो
वो सब कुछ जो तुम्हे पसंद है
मुझे सुन.ना है ,सब कुछ आज
कितने दिन हुए
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