रविवार, 19 दिसंबर 2010

लफ्ज़

बस कुछ लिखने ही तो बैठा था

मगर ये क्या कि आज लफ्ज़ भी
धोखा दे रहे हैं

जैसे वो भी मेरे अपने ना रहे

वैसे तो हर घड़ी मेरे ज़ेहन में
टकराते रहते है

पर जाने क्यों

जिस वक़्त उनकी ज़रुरत रहती है
वो मुझसे मुँह मोड़ जाते है

जैसे कोई उनको मेरे खिलाफ भड़का देता है

या वो मेरी उनकी लिए
दिखाई गयी बेरुखी का
बदला लेते है

जो भी बात हो

मुझे उस वक़्त वो बहुत सताते हैं

फिर जब थोड़ा सननाटा होता है

रात के आखिरी पहर
फिर जैसे उनको घर की याद
आती है

और वो वापस मेरे ज़ेहन में आ जाते है

और एक
झपकी ले लेते हैं

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