बस कुछ लिखने ही तो बैठा था
मगर ये क्या कि आज लफ्ज़ भी
धोखा दे रहे हैं
जैसे वो भी मेरे अपने ना रहे
वैसे तो हर घड़ी मेरे ज़ेहन में
टकराते रहते है
पर जाने क्यों
जिस वक़्त उनकी ज़रुरत रहती है
वो मुझसे मुँह मोड़ जाते है
जैसे कोई उनको मेरे खिलाफ भड़का देता है
या वो मेरी उनकी लिए
दिखाई गयी बेरुखी का
बदला लेते है
जो भी बात हो
मुझे उस वक़्त वो बहुत सताते हैं
फिर जब थोड़ा सननाटा होता है
रात के आखिरी पहर
फिर जैसे उनको घर की याद
आती है
और वो वापस मेरे ज़ेहन में आ जाते है
और एक
झपकी ले लेते हैं
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