बुधवार, 29 दिसंबर 2010

खुद के लिए

दिसम्बर का महीना

सर्दी की हल्की हल्की शुरुआत

ठिठुरते हुए कांपती सड़को पर
चलता रहता लोगों का हुजूम

कुछ जज्बा होता है जो चलने को मजबूर
करता है

वरना दिल तो यही करता है कि
घर में बैठ कर एक लिहाफ में बैठे हुए

सूरज को ढलते , उगते देखूं

शाम को बालकॉनी में बैठ के पकोड़ो संग
चाय कि चुस्कियां लूं

कुछ वैसे ही जैसे कुछ अरसा पहले किया करता था
जब ना आज जैसी भाग दौड़ थी

ना कोई फ़िक्र ना कोई वादा

कुछ नहीं

बस खुद के लिए
खुद के साथ

महसूस कर रहा होता था मै ज़िन्दगी को

गौर करता था मै हर छोटी बात
वो बात जो अहमियत रखती थी

मेरे जिस्म के लिए नहीं
मेरी रूह के लिए

पर कुछ को अच्छा नहीं लगता
इतना ख्याल

पर मुझे कैसा लगता है
मै सोच लेता हूँ बैठे बैठे फुर्सत में

अजीब है सब कुछ
बहुत अजीब..

कोई टिप्पणी नहीं: