गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

शहर...

कुछ शहर अपने साथ

अपने रहने वालों को भी

बदल देते हैं

बाहर निकलने पे जैसे सारा कीचड़
चिपक जाता है खुद से

वो थोड़ी नफरत जो गन्दगी देख के
आती है दिल में

या कुछ भिखारियों को देख के दुनिया की लोगों
के लिए बेरुखी

वो शहर अपने में ही एक ज़िन्दगी जीता रहता है

हर पल कुछ नए लोग आते हैं शहर की ज़िन्दगी में

कुछ रोज़ छोड़ के जाते हैं

पर वो कभी कुछ नहीं कहता हम इंसानों की तरह

लेकिन उस के साथ रह के
उसकी आदतों के साथ जीते जीते

हर इंसान कुछ जुटा लेता है अपने लिए

और वो शहर भी कभी कुछ मांग लेता है

और कभी छीन लेता है सब कुछ

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