दिसम्बर का महीना
सर्दी की हल्की हल्की शुरुआत
ठिठुरते हुए कांपती सड़को पर
चलता रहता लोगों का हुजूम
कुछ जज्बा होता है जो चलने को मजबूर
करता है
वरना दिल तो यही करता है कि
घर में बैठ कर एक लिहाफ में बैठे हुए
सूरज को ढलते , उगते देखूं
शाम को बालकॉनी में बैठ के पकोड़ो संग
चाय कि चुस्कियां लूं
कुछ वैसे ही जैसे कुछ अरसा पहले किया करता था
जब ना आज जैसी भाग दौड़ थी
ना कोई फ़िक्र ना कोई वादा
कुछ नहीं
बस खुद के लिए
खुद के साथ
महसूस कर रहा होता था मै ज़िन्दगी को
गौर करता था मै हर छोटी बात
वो बात जो अहमियत रखती थी
मेरे जिस्म के लिए नहीं
मेरी रूह के लिए
पर कुछ को अच्छा नहीं लगता
इतना ख्याल
पर मुझे कैसा लगता है
मै सोच लेता हूँ बैठे बैठे फुर्सत में
अजीब है सब कुछ
बहुत अजीब..
बुधवार, 29 दिसंबर 2010
गुरुवार, 23 दिसंबर 2010
कविता
कह दो तुम भी कह दें हम भी
ऐसी क्या मजबूरी है
राज़ी तुम हो राज़ी हम हैं
फिर काहें की दूरी है
अनजानी राहों पर चल के
अनदेखे सपने ढूंढेंगे
तुमको खुद को और फिर चल के
हम भी खुदा को ढूंढेंगे
बदलेगा सब वक़्त हमारा
जो अच्छा होना होगा
फूल नए खिल आयेंगे फिर
बीज नए बोना होगा
ऐसी क्या मजबूरी है
राज़ी तुम हो राज़ी हम हैं
फिर काहें की दूरी है
अनजानी राहों पर चल के
अनदेखे सपने ढूंढेंगे
तुमको खुद को और फिर चल के
हम भी खुदा को ढूंढेंगे
बदलेगा सब वक़्त हमारा
जो अच्छा होना होगा
फूल नए खिल आयेंगे फिर
बीज नए बोना होगा
कविता
दिल कि बातें दिल में रखो
दिल को मत समझाओ तुम
बात बड़ी हो या हो छोटी
उस से दिल ना लगाओ तुम
उलझो तो फिर सुलझाओ
रूठो जब फिर मनाओ तुम
मेरे आगे मेरे पीछे
आओ ना फिर जाओ तुम
दिल को मत समझाओ तुम
बात बड़ी हो या हो छोटी
उस से दिल ना लगाओ तुम
उलझो तो फिर सुलझाओ
रूठो जब फिर मनाओ तुम
मेरे आगे मेरे पीछे
आओ ना फिर जाओ तुम
बुधवार, 22 दिसंबर 2010
ग़ज़ल
बहुत दिन बाद आएगी मुझे चैन की नींद
आज मालूम हुआ मुझे कि अब खोने को कुछ ना रहा
मेरे आंसूं भी आज हैरान है मुझे देख कर
जाने क्या हुआ जो अब रोने को कुछ ना रहा
तुम्हारा बाद अब बस इतनी आसानी है मुझे
अब कोई ख्वाब संजोने को कुछ ना रहा
बहुत हल्का है अब उम्मीदों का बोझ
एक बोझ उतर गया तो अब ढोने को कुछ ना रहा
पता नहीं
बहुत अजीब लगता है
अपने हाथ कुछ अपना उजाड़ना
सिर्फ इसलिए कि कहीं नयी ज़मीन पर
कुछ नया बसाना हो
पर क्या करें कि
कभी हालात सुधारने के लिए
कुछ मुश्किल फैसले लेने पड़ते हैं
शायद उसमे भी नुक्सान अपना ही होगा
मगर नफे नुक्सान कि परवाह करना एक बात
है, और
हर रोज़ दोराहे पर खड़े हो के फैसले
करना दूसरी बात
बस यही लगता है कि आगे बढ़ने का नाम ही
ज़िन्दगी है
पता नहीं
पता नहीं
क्या ऐसा सिर्फ मुझे लगता है?
अपने हाथ कुछ अपना उजाड़ना
सिर्फ इसलिए कि कहीं नयी ज़मीन पर
कुछ नया बसाना हो
पर क्या करें कि
कभी हालात सुधारने के लिए
कुछ मुश्किल फैसले लेने पड़ते हैं
शायद उसमे भी नुक्सान अपना ही होगा
मगर नफे नुक्सान कि परवाह करना एक बात
है, और
हर रोज़ दोराहे पर खड़े हो के फैसले
करना दूसरी बात
बस यही लगता है कि आगे बढ़ने का नाम ही
ज़िन्दगी है
पता नहीं
पता नहीं
क्या ऐसा सिर्फ मुझे लगता है?
मंगलवार, 21 दिसंबर 2010
ये शाम
एक कप काफी और तुम्हारा साथ
बस इतना हो तो वक़्त अच्छा गुज़रता है
कोई और ख्वाहिश नहीं होती उस वक़्त
बस तुम्हे देखने को जी करता है
तुम्हारी पलकों का गिरा एक हिस्सा
खींच लाता है मेरे हाथों को
तुम्हारी इधर उधर देखती नज़रें
और झूठा गुस्सा
दिल में ढेर सारा प्यार उमड़ आता है
ये सब इसलिए नहीं होता की तुम मेरी हो
बल्कि इसलिए की तुम्हारा कुछ वक़्त सिर्फ मेरा है
ज़िन्दगी की हज़ार शामों में ये शाम अलग है
और शायद हमेशा इतनी ही अलग होगी...
बस इतना हो तो वक़्त अच्छा गुज़रता है
कोई और ख्वाहिश नहीं होती उस वक़्त
बस तुम्हे देखने को जी करता है
तुम्हारी पलकों का गिरा एक हिस्सा
खींच लाता है मेरे हाथों को
तुम्हारी इधर उधर देखती नज़रें
और झूठा गुस्सा
दिल में ढेर सारा प्यार उमड़ आता है
ये सब इसलिए नहीं होता की तुम मेरी हो
बल्कि इसलिए की तुम्हारा कुछ वक़्त सिर्फ मेरा है
ज़िन्दगी की हज़ार शामों में ये शाम अलग है
और शायद हमेशा इतनी ही अलग होगी...
सोमवार, 20 दिसंबर 2010
कमबख्त
साली उधार की ज़िन्दगी
कौन कहता ये अपनी है
ये तो लीज़ पे मिली है
कई सारी शर्तों के साथ
हर महीने किराया मांगती है
कौन कहता ये अपनी है
ये तो लीज़ पे मिली है
कई सारी शर्तों के साथ
हर महीने किराया मांगती है
रविवार, 19 दिसंबर 2010
लफ्ज़
बस कुछ लिखने ही तो बैठा था
मगर ये क्या कि आज लफ्ज़ भी
धोखा दे रहे हैं
जैसे वो भी मेरे अपने ना रहे
वैसे तो हर घड़ी मेरे ज़ेहन में
टकराते रहते है
पर जाने क्यों
जिस वक़्त उनकी ज़रुरत रहती है
वो मुझसे मुँह मोड़ जाते है
जैसे कोई उनको मेरे खिलाफ भड़का देता है
या वो मेरी उनकी लिए
दिखाई गयी बेरुखी का
बदला लेते है
जो भी बात हो
मुझे उस वक़्त वो बहुत सताते हैं
फिर जब थोड़ा सननाटा होता है
रात के आखिरी पहर
फिर जैसे उनको घर की याद
आती है
और वो वापस मेरे ज़ेहन में आ जाते है
और एक
झपकी ले लेते हैं
मगर ये क्या कि आज लफ्ज़ भी
धोखा दे रहे हैं
जैसे वो भी मेरे अपने ना रहे
वैसे तो हर घड़ी मेरे ज़ेहन में
टकराते रहते है
पर जाने क्यों
जिस वक़्त उनकी ज़रुरत रहती है
वो मुझसे मुँह मोड़ जाते है
जैसे कोई उनको मेरे खिलाफ भड़का देता है
या वो मेरी उनकी लिए
दिखाई गयी बेरुखी का
बदला लेते है
जो भी बात हो
मुझे उस वक़्त वो बहुत सताते हैं
फिर जब थोड़ा सननाटा होता है
रात के आखिरी पहर
फिर जैसे उनको घर की याद
आती है
और वो वापस मेरे ज़ेहन में आ जाते है
और एक
झपकी ले लेते हैं
ग़ज़ल
हर घड़ी तुम्हारा झगड़ना भुला ना पाउँगा
जहाँ भी जाऊंगा ये याद ले के जाऊंगा
मेरा मोल मुझे खो कर ही समझ पाओगे
जब तुम बुलाओगे मै ना आऊंगा
कई बार होता है कुछ जो समझ नहीं आता
दास्ताँ फिर ना मै अब ये सुनाऊंगा
जहाँ भी जाऊंगा ये याद ले के जाऊंगा
मेरा मोल मुझे खो कर ही समझ पाओगे
जब तुम बुलाओगे मै ना आऊंगा
कई बार होता है कुछ जो समझ नहीं आता
दास्ताँ फिर ना मै अब ये सुनाऊंगा
कहीं कुछ बात तो नहीं ...
बड़े खामोश दिखते हो
कहीं कुछ बात तो नहीं
ऐसा तो नहीं
कि कोई तूफ़ान आ के गुज़र गया हो
या फिर
ये किसी तूफ़ान के आने के पहले
कि ख़ामोशी है
सिर्फ आज क्यों
आज का दिन चुनने कि कोई खास वजह
क्या आज ही के दिन पिछली बार कुछ
अच्छा हुआ था
जिसकी याद आज फिर आ रही है
मुझे पता है तुम्हे कुछ नहीं कहना
और तुम कुछ बोलोगे भी नहीं
पर मेरा दिल कहाँ मानता है
मै तो पूछ पडूंगा
भले तुम जवाब दो ना दो
बोलो
कहीं कुछ बात तो नहीं
ऐसा तो नहीं
कि कोई तूफ़ान आ के गुज़र गया हो
या फिर
ये किसी तूफ़ान के आने के पहले
कि ख़ामोशी है
सिर्फ आज क्यों
आज का दिन चुनने कि कोई खास वजह
क्या आज ही के दिन पिछली बार कुछ
अच्छा हुआ था
जिसकी याद आज फिर आ रही है
मुझे पता है तुम्हे कुछ नहीं कहना
और तुम कुछ बोलोगे भी नहीं
पर मेरा दिल कहाँ मानता है
मै तो पूछ पडूंगा
भले तुम जवाब दो ना दो
बोलो
बड़े खामोश दिखते हो
कहीं कुछ बात तो नहीं?
शनिवार, 18 दिसंबर 2010
गुरुवार, 16 दिसंबर 2010
ग़ज़ल
एक तुमसे ही कुछ उम्मीद थी पर ये क्या जाना
आज तुमने भी कह दिया कि अब नज़र ना आना
लोग ज़ालिम है उन के ताने मैंने सुन थे लिए
तू तो अपना था मगर तूने मुझे क्या जाना
अब खोने को बचा क्या है ,अब है कैसा डर
जो खोया तुमको तो अब मुझको है क्या पाना
आज तुमने भी कह दिया कि अब नज़र ना आना
लोग ज़ालिम है उन के ताने मैंने सुन थे लिए
तू तो अपना था मगर तूने मुझे क्या जाना
अब खोने को बचा क्या है ,अब है कैसा डर
जो खोया तुमको तो अब मुझको है क्या पाना
ग़ज़ल
मुझे बस इतना कहना है कि मुझे बोलने दो
मेरी बात भी सुन लो कभी खुदा के लिए
बरस पड़ो ना मुझ पे, ना गरजो बादल की तरह
मेरी राय भी ले लो कभी सजा के लिए
बला का ज़ोर है तूफ़ान में जब वो उठता है
मेरी रूह तड़पती है जब वफ़ा के लिए
मेरी बात भी सुन लो कभी खुदा के लिए
बरस पड़ो ना मुझ पे, ना गरजो बादल की तरह
मेरी राय भी ले लो कभी सजा के लिए
बला का ज़ोर है तूफ़ान में जब वो उठता है
मेरी रूह तड़पती है जब वफ़ा के लिए
शहर...
कुछ शहर अपने साथ
अपने रहने वालों को भी
बदल देते हैं
बाहर निकलने पे जैसे सारा कीचड़
चिपक जाता है खुद से
वो थोड़ी नफरत जो गन्दगी देख के
आती है दिल में
या कुछ भिखारियों को देख के दुनिया की लोगों
के लिए बेरुखी
वो शहर अपने में ही एक ज़िन्दगी जीता रहता है
हर पल कुछ नए लोग आते हैं शहर की ज़िन्दगी में
कुछ रोज़ छोड़ के जाते हैं
पर वो कभी कुछ नहीं कहता हम इंसानों की तरह
लेकिन उस के साथ रह के
उसकी आदतों के साथ जीते जीते
हर इंसान कुछ जुटा लेता है अपने लिए
और वो शहर भी कभी कुछ मांग लेता है
और कभी छीन लेता है सब कुछ
अपने रहने वालों को भी
बदल देते हैं
बाहर निकलने पे जैसे सारा कीचड़
चिपक जाता है खुद से
वो थोड़ी नफरत जो गन्दगी देख के
आती है दिल में
या कुछ भिखारियों को देख के दुनिया की लोगों
के लिए बेरुखी
वो शहर अपने में ही एक ज़िन्दगी जीता रहता है
हर पल कुछ नए लोग आते हैं शहर की ज़िन्दगी में
कुछ रोज़ छोड़ के जाते हैं
पर वो कभी कुछ नहीं कहता हम इंसानों की तरह
लेकिन उस के साथ रह के
उसकी आदतों के साथ जीते जीते
हर इंसान कुछ जुटा लेता है अपने लिए
और वो शहर भी कभी कुछ मांग लेता है
और कभी छीन लेता है सब कुछ
शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010
ग़ज़ल
मेरे दिल से तेरा दिल कुछ करीब सा है
मुझसे तेरा ये रिश्ता कुछ अजीब सा है
ये तो बस समझने का फर्क है वरना
कोई दोस्त लगता है,कोई रकीब सा है
कुछ तो फर्क है जो दोनों अलग से हैं
तू खुशनसीब सा है,वो बदनसीब सा हैं
मुझसे तेरा ये रिश्ता कुछ अजीब सा है
ये तो बस समझने का फर्क है वरना
कोई दोस्त लगता है,कोई रकीब सा है
कुछ तो फर्क है जो दोनों अलग से हैं
तू खुशनसीब सा है,वो बदनसीब सा हैं
क़ैद
बस वही रुको
हिलना नहीं
हाँ, बिलकुल ऐसे ही
रुको तो
बस थोड़ी देर और
नहीं नहीं ऐसे नहीं
बस अब मैंने क़ैद कर लिया तुमको
अपनी नज़रों में
हिलना नहीं
हाँ, बिलकुल ऐसे ही
रुको तो
बस थोड़ी देर और
नहीं नहीं ऐसे नहीं
बस अब मैंने क़ैद कर लिया तुमको
अपनी नज़रों में
मुझे सुन.ना है
तुम कुछ मत सोचो
कुछ काम मेरे हिस्से ही अच्छे लगते हैं
तुम बस कहो
वो सब कुछ जो तुम्हे पसंद है
मुझे सुन.ना है ,सब कुछ आज
कितने दिन हुए
कुछ काम मेरे हिस्से ही अच्छे लगते हैं
तुम बस कहो
वो सब कुछ जो तुम्हे पसंद है
मुझे सुन.ना है ,सब कुछ आज
कितने दिन हुए
बुधवार, 17 नवंबर 2010
ग़ज़ल
खुदा ने गर चाहा फूल खिलने लगेंगे सेहरा में
अभी कुछ और दुआ करने की ज़रुरत है...
तबियत सुधर जायेगी बस ये समझो
ये जो आब-ओ-हवा है,बदलने की ज़रुरत है..
रास्ता पथरीला है फिर भी तय हो जाएगा
थोड़ा सा संभल के चलने की ज़रुरत है ..
मुझपे है क्या गुजरी ये समझने के लिए
तुम्हे ज़रा सा पिघलने की ज़रुरत है...
तुम भी खरे हो जाओगे तप के
थोड़ा सा आग में जलने की ज़रुरत है..
अभी कुछ और दुआ करने की ज़रुरत है...
तबियत सुधर जायेगी बस ये समझो
ये जो आब-ओ-हवा है,बदलने की ज़रुरत है..
रास्ता पथरीला है फिर भी तय हो जाएगा
थोड़ा सा संभल के चलने की ज़रुरत है ..
मुझपे है क्या गुजरी ये समझने के लिए
तुम्हे ज़रा सा पिघलने की ज़रुरत है...
तुम भी खरे हो जाओगे तप के
थोड़ा सा आग में जलने की ज़रुरत है..
जान पहचान....
अजीब लगता है
उन रातों का बादल जाना
जिनसे मेरी जान पहचान थी
रोज़ मुझसे दुआ सलाम होती थी
आज कह रहे थे
वो किराए पे बसते हैं
मुझसे अब तक का हिसाब कराना चाहते हैं
ऐसा भी होता है क्या कभी
हर चीज़ की कीमत कैसे मापी जा सकती है
मैंने भी हार नहीं मानी और उनसे लड़ पड़ा
जब ना जीत पाया तो मिन्नतें की
लेकिन वो भी कहाँ मानने वाले थे
चल दिए सब कुछ लेकर
हम भी क्या करते
हमने जीने के लिया कुछ दिन उधार ले लिए
# शाहिद
उन रातों का बादल जाना
जिनसे मेरी जान पहचान थी
रोज़ मुझसे दुआ सलाम होती थी
आज कह रहे थे
वो किराए पे बसते हैं
मुझसे अब तक का हिसाब कराना चाहते हैं
ऐसा भी होता है क्या कभी
हर चीज़ की कीमत कैसे मापी जा सकती है
मैंने भी हार नहीं मानी और उनसे लड़ पड़ा
जब ना जीत पाया तो मिन्नतें की
लेकिन वो भी कहाँ मानने वाले थे
चल दिए सब कुछ लेकर
हम भी क्या करते
हमने जीने के लिया कुछ दिन उधार ले लिए
# शाहिद
शुक्रवार, 5 नवंबर 2010
ग़ज़ल
हमसफ़र वो था जिसने सताया भी था
रोया जब मै था,उसने हँसाया भी था
भले कभी ना कहा कुछ, तो इसका क्या है ग़म
मुझे तो याद है कि कहने कुछ आया भी था
मेरी बातों को सुना ,मुझसे बातें क़ी सभी
उन्ही बातों को मेरे ख्वाब में दोहराया भी था
आज कुछ दूर है वो,कभी करीब था जो
मेरी आरजू मेरी जुस्तजू मेरा हम साया भी था
रोया जब मै था,उसने हँसाया भी था
भले कभी ना कहा कुछ, तो इसका क्या है ग़म
मुझे तो याद है कि कहने कुछ आया भी था
मेरी बातों को सुना ,मुझसे बातें क़ी सभी
उन्ही बातों को मेरे ख्वाब में दोहराया भी था
आज कुछ दूर है वो,कभी करीब था जो
मेरी आरजू मेरी जुस्तजू मेरा हम साया भी था
हुआ करते थे
प्यार और क्या है
बस एक आदत
जो पड़ जाती है
बिना देखे
जैसे चैन नहीं पड़ता
हर दिन आसान नहीं होता
वैसे ही उतार चढाव आते है
रोज़ की तरह
लेकिन फिर भी कौन कहता है
सांस लेने को
पर बिन लिए जिया भी नहीं जाता
कुछ वैसे ही
बदलना बहुत मुश्किल होता है
शाम होना भी एक आदत सी है हर दिन की
किसी किसी दिन बहुत लम्बी हो जाती है
और कभी होती ही नहीं
कुछ वैसे ही जैसे नहीं दिखता वो
चेहरा जो हर रोज़ दिखता था
पुराने किस्से की तरह
सुनने में अच्छे लगते है
उन को याद करके
वो भी क्या दिन हुआ करते
यकीन मानो
हुआ करते थे....
# शाहिद
बस एक आदत
जो पड़ जाती है
बिना देखे
जैसे चैन नहीं पड़ता
हर दिन आसान नहीं होता
वैसे ही उतार चढाव आते है
रोज़ की तरह
लेकिन फिर भी कौन कहता है
सांस लेने को
पर बिन लिए जिया भी नहीं जाता
कुछ वैसे ही
बदलना बहुत मुश्किल होता है
शाम होना भी एक आदत सी है हर दिन की
किसी किसी दिन बहुत लम्बी हो जाती है
और कभी होती ही नहीं
कुछ वैसे ही जैसे नहीं दिखता वो
चेहरा जो हर रोज़ दिखता था
पुराने किस्से की तरह
सुनने में अच्छे लगते है
उन को याद करके
वो भी क्या दिन हुआ करते
यकीन मानो
हुआ करते थे....
# शाहिद
रविवार, 17 अक्टूबर 2010
इत्तेफाक..
इत्तेफाक अच्छे लगते है
जैसे अचानक जब धूप से परेशान हो
और बादल छा जाए
एक ख़ामोशी की दीवार टूट जाए
किसी बहाने से
अरे रहने दो ना ,अच्छे लग रहे है
बिखरे हुए
मत छेड़ो इन्हें
कोई कह देता है
दिल में कई बातें आ जाती है
दिल भी अजीब है ना
मान जाता है कभी ,कभी जिद करता है
उसे क्या पता
इत्तेफाक रोज़ रोज़ थोड़े ना होते है
वो भी अच्छे वाले
पर जब भी होते है अच्छा लगता है
बहुत अच्छा
# शाहिद
जैसे अचानक जब धूप से परेशान हो
और बादल छा जाए
एक ख़ामोशी की दीवार टूट जाए
किसी बहाने से
अरे रहने दो ना ,अच्छे लग रहे है
बिखरे हुए
मत छेड़ो इन्हें
कोई कह देता है
दिल में कई बातें आ जाती है
दिल भी अजीब है ना
मान जाता है कभी ,कभी जिद करता है
उसे क्या पता
इत्तेफाक रोज़ रोज़ थोड़े ना होते है
वो भी अच्छे वाले
पर जब भी होते है अच्छा लगता है
बहुत अच्छा
# शाहिद
शनिवार, 16 अक्टूबर 2010
आसमान ...
एक टूटे हुए पुल पे बैठा
मै देख रहा था
आसमान, नीला आसमान
बहुत खूबसूरत दिखता है कभी कभी
अगर मेरी नज़र से देखो
तो और ज्यादा लगेगा
कभी कभी काला दिखता है, बहुत काला
जब घने बादल छा जाते है
पहली बार देखने वाले को लगता है कि
ऐसा ही दिखता होगा आसमान
लेकिन वो तो हर दिन अलग दिखता है
कभी एक परदे कि तरह जिसपे सितारे टाके हो
कभी छलनी कि तरह जिसमे लाखों छेद हो
जिनमे से पानी टपक रहा हो
कई बार एक साए कि तरह लगता है
जो पीछा कर रहा हो हर जगह
हम सबको अपने हिस्से में मिलता है
हम सबका एक मुठ्ठी आसमान
जब कभी वक़्त मिलता है मै उस पुल पे जाता हूँ
देखने मेरा आसमान
# शाहिद
मै देख रहा था
आसमान, नीला आसमान
बहुत खूबसूरत दिखता है कभी कभी
अगर मेरी नज़र से देखो
तो और ज्यादा लगेगा
कभी कभी काला दिखता है, बहुत काला
जब घने बादल छा जाते है
पहली बार देखने वाले को लगता है कि
ऐसा ही दिखता होगा आसमान
लेकिन वो तो हर दिन अलग दिखता है
कभी एक परदे कि तरह जिसपे सितारे टाके हो
कभी छलनी कि तरह जिसमे लाखों छेद हो
जिनमे से पानी टपक रहा हो
कई बार एक साए कि तरह लगता है
जो पीछा कर रहा हो हर जगह
हम सबको अपने हिस्से में मिलता है
हम सबका एक मुठ्ठी आसमान
जब कभी वक़्त मिलता है मै उस पुल पे जाता हूँ
देखने मेरा आसमान
# शाहिद
शनिवार, 9 अक्टूबर 2010
ऐसे ही...
१.
मुझे जिंदगी कि तलाश थी ,तुझे मुझ से था क्या वास्ता
मै ढूढता तुझे रहा , तू सामने से निकल गया
२.
वो शाम थोड़ी अजीब थी ,ये शाम भी कुछ कम नहीं
उस दिन तू मुझसे खफा सा था ,आज जिंदगी खफा सी है
३.
बड़े खुशनसीब है वो लोग भी ,तुझे देखते ,तुझे चाहते
मैंने छू के देखा था जब तुम्हे ,कुछ और ना फिर देखा किया
मुझे जिंदगी कि तलाश थी ,तुझे मुझ से था क्या वास्ता
मै ढूढता तुझे रहा , तू सामने से निकल गया
२.
वो शाम थोड़ी अजीब थी ,ये शाम भी कुछ कम नहीं
उस दिन तू मुझसे खफा सा था ,आज जिंदगी खफा सी है
३.
बड़े खुशनसीब है वो लोग भी ,तुझे देखते ,तुझे चाहते
मैंने छू के देखा था जब तुम्हे ,कुछ और ना फिर देखा किया
दुनिया...
कुछ हुआ भी नहीं
और ऐसा लगा की दुनिया बदल गयी
नया सा सब कुछ ,नए लोग
नए सपने ,नए वादे
ऐसा लगा कि नयी किताब खरीद
के पढ़ रहा हूँ कोई
नए पन्ने ,नए किरदार
नए लफ्ज़ और एक नया कलेवर
मेरे पहले भी किसी को ऐसा लगा होगा
मेरे बाद भी लगेगा शायद
पर घड़ी भर को ये मानने में क्या जाता है
कि मै एक नयी दुनिया में हूँ
नयी ना सही ,पुरानी मरम्मत कि गयी
# शाहिद
और ऐसा लगा की दुनिया बदल गयी
नया सा सब कुछ ,नए लोग
नए सपने ,नए वादे
ऐसा लगा कि नयी किताब खरीद
के पढ़ रहा हूँ कोई
नए पन्ने ,नए किरदार
नए लफ्ज़ और एक नया कलेवर
मेरे पहले भी किसी को ऐसा लगा होगा
मेरे बाद भी लगेगा शायद
पर घड़ी भर को ये मानने में क्या जाता है
कि मै एक नयी दुनिया में हूँ
नयी ना सही ,पुरानी मरम्मत कि गयी
# शाहिद
मंगलवार, 5 अक्टूबर 2010
आवाजें ...
आवाज़ आती रहती है
अजीब अजीब सी आवाजें
चिड़ियों के चेहचेहाने की
पानी के टप टप गिरने की
पंखे की टर टर की
रेडियो के गाने की
किसी को जोर से बुलाने की
आवाज़ आती रहती है
अजीब अजीब सी आवाजें
झींगुर के बोलने की
पत्तों के हिलने की
मुर्गों के बांगों की
किसी के रोने की
किसी को हँसाने की
आवाज़ आती रहती है
अजीब अजीब सी आवाजें
अजीब अजीब सी आवाजें
चिड़ियों के चेहचेहाने की
पानी के टप टप गिरने की
पंखे की टर टर की
रेडियो के गाने की
किसी को जोर से बुलाने की
आवाज़ आती रहती है
अजीब अजीब सी आवाजें
झींगुर के बोलने की
पत्तों के हिलने की
मुर्गों के बांगों की
किसी के रोने की
किसी को हँसाने की
आवाज़ आती रहती है
अजीब अजीब सी आवाजें
ग़लतफहमी ....
ख़िलाफ़त कर नहीं सकता, और तेरा हो नहीं सकता
दिल इतना बड़ा हो जिसका ,वो कमज़ोर हो नहीं सकता
समझने की ज़रुरत है ,की क्या है फायदा इसमें
खुदा की मर्ज़ी है इसमें ,तो बुरा हो नहीं सकता
दाग आँखों में हो तो साफ़ दिखता नहीं कभी
जो जैसा दिखता है ऐसे, वो वैसा हो नहीं सकता
"ग़ालिब" ना बन, ना उस जैसा होने का भरम रख
तू जितना जानता उसको ,वो उतना हो नहीं सकता
# शाहिद
दिल इतना बड़ा हो जिसका ,वो कमज़ोर हो नहीं सकता
समझने की ज़रुरत है ,की क्या है फायदा इसमें
खुदा की मर्ज़ी है इसमें ,तो बुरा हो नहीं सकता
दाग आँखों में हो तो साफ़ दिखता नहीं कभी
जो जैसा दिखता है ऐसे, वो वैसा हो नहीं सकता
"ग़ालिब" ना बन, ना उस जैसा होने का भरम रख
तू जितना जानता उसको ,वो उतना हो नहीं सकता
# शाहिद
सोमवार, 4 अक्टूबर 2010
मेरे आगे ..
कुछ इस तरह वो पलकें ,झुका गया मेरे आगे
जैसे सूरज पे पर्दा पड़ गया सारा ,मेरे आगे
हकीकत से था बेपरवाह, दिल किसी और दुनिया में
जब जागा तो दिखी ,एक नयी दुनिया मेरे आगे
कई किरदार देखे थे मेरे पहले, सितमगर ने
जो देखा मुझको तो ,हार मान बैठा वो मेरे आगे
सितारों से भरी थी रात, ख्वाब कई थे आँखों में
सुबह हुई तो कहता था, क्या क्या हुआ मेरे आगे
बेचारा किस तरह करे सच और झूठ में फर्क
जो उसका सच है वो तो झूठ है अब मेरे आगे
जब सुननी नहीं है बात तो चाहे जो कुछ कह लो
मेरा दिल खुद की सुनता और करता है मेरे आगे
डर जिस बात का है वही है हिम्मत की ज़मीन
ये दिखता कुछ है होता कुछ है क्या लफड़ा मेरे आगे
# शाहिद
जैसे सूरज पे पर्दा पड़ गया सारा ,मेरे आगे
हकीकत से था बेपरवाह, दिल किसी और दुनिया में
जब जागा तो दिखी ,एक नयी दुनिया मेरे आगे
कई किरदार देखे थे मेरे पहले, सितमगर ने
जो देखा मुझको तो ,हार मान बैठा वो मेरे आगे
सितारों से भरी थी रात, ख्वाब कई थे आँखों में
सुबह हुई तो कहता था, क्या क्या हुआ मेरे आगे
बेचारा किस तरह करे सच और झूठ में फर्क
जो उसका सच है वो तो झूठ है अब मेरे आगे
जब सुननी नहीं है बात तो चाहे जो कुछ कह लो
मेरा दिल खुद की सुनता और करता है मेरे आगे
डर जिस बात का है वही है हिम्मत की ज़मीन
ये दिखता कुछ है होता कुछ है क्या लफड़ा मेरे आगे
# शाहिद
उसी रास्ते पर...
रास्ते में आते हुए
कुछ धान के खेत पड़ते है
रोज़ शाम को सूरज की तिरछी किरणे
उन पे ऐसे गिरती है मानो
कोई रास्ता दिखा रहा हो उजाले का
एक छोटा बरसों पुराना पुल
झाड़ियों से ढाका हुआ
ऐसा लगता है की जाने कितने
जाने वालों की कहानोयाँ छुपाये हुए
वहीँ खड़ा है
एक मज़ार जहाँ साल में एक बार
मेला लगता है
और बाकी वक़्त में उस में उगी घास
बकरियों को अंदर बुलाती है
पर लोहे का वो पुराना गेट
एक दीवार सा खड़ा हो जाता है उनके लिए
एक पीपल का पुराना पेड़
उस गंदे तालाब के पास
जो हर बरसात में साफ़ पानी से भर जाता है
हर आने जाने वालों को सुस्ताने को रोकता है
वहां हवा के बहने की आवाज़
पत्तों से होके गुज़रती जाती है
फिर कुछ घर दिखाई देने लगते है
बस्ती करीब मालूम होते ही
सूरज अँधेरे की चादर में छुप
जाता है
और फिर कोई और चल निकलता है
उसी रास्ते पर
# शाहिद
कुछ धान के खेत पड़ते है
रोज़ शाम को सूरज की तिरछी किरणे
उन पे ऐसे गिरती है मानो
कोई रास्ता दिखा रहा हो उजाले का
एक छोटा बरसों पुराना पुल
झाड़ियों से ढाका हुआ
ऐसा लगता है की जाने कितने
जाने वालों की कहानोयाँ छुपाये हुए
वहीँ खड़ा है
एक मज़ार जहाँ साल में एक बार
मेला लगता है
और बाकी वक़्त में उस में उगी घास
बकरियों को अंदर बुलाती है
पर लोहे का वो पुराना गेट
एक दीवार सा खड़ा हो जाता है उनके लिए
एक पीपल का पुराना पेड़
उस गंदे तालाब के पास
जो हर बरसात में साफ़ पानी से भर जाता है
हर आने जाने वालों को सुस्ताने को रोकता है
वहां हवा के बहने की आवाज़
पत्तों से होके गुज़रती जाती है
फिर कुछ घर दिखाई देने लगते है
बस्ती करीब मालूम होते ही
सूरज अँधेरे की चादर में छुप
जाता है
और फिर कोई और चल निकलता है
उसी रास्ते पर
# शाहिद
रविवार, 3 अक्टूबर 2010
एक बार ..........
एक बार बस एक बार
मुझसे झगड़ के चले जाओ
बुरा बन जाओ मेरे लिए
इतना की फिर कभी याद ना करूँ मै तुम्हे
वो धागा तोड़ दो जिस से जुड़ा हुआ हूँ मै तुमसे
वो रास्ते बंद कर दो जो तुम्हारी तरफ जाते हो
बन जाओ अनजान मेरे लिए
इतना की फिर कभी ना जान पाऊं तुम्हे
एक बार बस एक बार
मुझसे बिछड़ के चले जाओ
# शाहिद
मुझसे झगड़ के चले जाओ
बुरा बन जाओ मेरे लिए
इतना की फिर कभी याद ना करूँ मै तुम्हे
वो धागा तोड़ दो जिस से जुड़ा हुआ हूँ मै तुमसे
वो रास्ते बंद कर दो जो तुम्हारी तरफ जाते हो
बन जाओ अनजान मेरे लिए
इतना की फिर कभी ना जान पाऊं तुम्हे
एक बार बस एक बार
मुझसे बिछड़ के चले जाओ
# शाहिद
शनिवार, 7 अगस्त 2010
किताब
मेरे साथ बैठ के उसने दो कप चाय पे
अपनी जिंदगी की किताब खोली
कुछ पन्ने पलट के मुझे दिखाने लगा
बीच में कहीं कुछ मेरे आगे से गुज़रा हुआ लगा
उस शाम जब समंदर किनारे बैठ कर
हम लहरों को देख रहे थे
सीप में एक मोती ले आई थी तुम
उस सीप पे पड़ी लकीरें उस किताब में दिखी
मैंने उस किताब से वो पन्ना फाड़ कर
अपनी जेब में रख लिया
# शाहिद
कोशिश
कई दिनों से तुम से बात नहीं की
ऐसा लगता था जैसे मै भूलने का
नाटक कर रहा हूँ
क्या इतना आसान है सब कुछ भुला के
एक दम से पहले की तरह कोरा हो जाना
मेरा मन कागज़ की तरह होता तो मै मिटा
भी देता सब कुछ जो तुमने लिखा था
पर क्या मै जिंदा रह पाता उसके बाद
कभी ना हारने वाला मन
जब हार जाता है तो बहाने ढूंढता है
ऐसे बहाने जिनका कोई वजूद नहीं होता
पर वो हमारे दिए गए सहारे पे खड़े हो
हमसे ही मुंह लड़ते है
ऐसा जताते है की जो हुआ वो कोई ग़लती हो
मैंने उनसे कह दिया मै उनके साथ नहीं
कई दिनों बाद मैंने कोशिश की
तुमसे बात करने की
#shahid
ऐसा लगता था जैसे मै भूलने का
नाटक कर रहा हूँ
क्या इतना आसान है सब कुछ भुला के
एक दम से पहले की तरह कोरा हो जाना
मेरा मन कागज़ की तरह होता तो मै मिटा
भी देता सब कुछ जो तुमने लिखा था
पर क्या मै जिंदा रह पाता उसके बाद
कभी ना हारने वाला मन
जब हार जाता है तो बहाने ढूंढता है
ऐसे बहाने जिनका कोई वजूद नहीं होता
पर वो हमारे दिए गए सहारे पे खड़े हो
हमसे ही मुंह लड़ते है
ऐसा जताते है की जो हुआ वो कोई ग़लती हो
मैंने उनसे कह दिया मै उनके साथ नहीं
कई दिनों बाद मैंने कोशिश की
तुमसे बात करने की
#shahid
,तुम से है.
मेरी सुबह-ओ-शाम की इन्तहा तुम से है
इस बेजान जिस्म में कुछ बची जान, तुम से है
घर तो मेरा कब का उजाड़ गया है लेकिन
जो भी बचा खुचा है बियाबान, तुम से है
शहर वीरान है सड़के पड़ी है सूनी सूनी
ढूंढता फिर रहा हूँ वो ज़मीन जिसकी पहचान, तुम से है
कई दिनों से कुछ लोग आ के कह जाते है
वक़्त जो ले रहा है इम्तेहान उसका रिश्ता,तुम से है?
क्या बचा है जो खोने का ग़म मनाऊँ
मुझे जो भी मिला उसका गिला बस ,तुम से है.
# shahid
इस बेजान जिस्म में कुछ बची जान, तुम से है
घर तो मेरा कब का उजाड़ गया है लेकिन
जो भी बचा खुचा है बियाबान, तुम से है
शहर वीरान है सड़के पड़ी है सूनी सूनी
ढूंढता फिर रहा हूँ वो ज़मीन जिसकी पहचान, तुम से है
कई दिनों से कुछ लोग आ के कह जाते है
वक़्त जो ले रहा है इम्तेहान उसका रिश्ता,तुम से है?
क्या बचा है जो खोने का ग़म मनाऊँ
मुझे जो भी मिला उसका गिला बस ,तुम से है.
# shahid
रविवार, 1 अगस्त 2010
है बहुत कुछ
अनकहा अनसुना
सा था कुछ;
कुछ ऐसा भी था जो कह के मै पछताया
भी था कुछ.
अजीब ख्वाहिश थी जो अधूरी हो के
भी पूरी थी;
अजीब मै था जो पूरा हो के भी अधूरा
सा था कुछ.
शहर छोटा था फिर भी बड़ा लगता
था मुझे
अब बड़े शहर में हूँ तो मै भी छोटा
हो गया हूँ कुछ
कई सालों से जो मिलता था आज अनजान
बन गया हूँ उसके लिए;
जो आज मिला हूँ तो लगता है उस से
पुराना रिश्ता है कुछ.
पीछे मुड़ के देखता हू तो बहुत
कुछ खोया हुआ सा लगता है;
सामने देखने पे लगता है की मैंने पाया
है बहुत कुछ .
# शाहिद
दोस्तों के नाम
मुझे मेरे दोस्त ने याद दिलाई
पुरानी बातें
साथ गुज़ारे कुछ पल
लगा जैसे अभी कल ही कि तो बात है
उस सड़क के किनारे जहाँ हम रात को
बैठा करते थे
वो ज़मीन अभी भी कुछ गीली सी होगी
वो छत से तारों को देखते हुए
ज़िन्दगी के ढेरों सपने जो देखे थे
उस वक़्त कभी नहीं लगा कि ये
सपने ,बस सपने ही रह जायेंगे
वो सुबह भागती हुई बस के पीछे दौड़ना
वो शाम को थके हारे वापस लौटना
वो चाय पे सब के साथ की गयी मस्ती मज़ाक
वो रात के खाने पे की गयी बातें बेबाक
सब कुछ एक पुरानी फिल्म की तरह लगता
है , जो चल रही हो फ्लैशबैक में
आज फिर सुबह उठ कर मै अपनी बस
पकड़ना चाहता हूँ
वापस अपने उन्ही दोस्तों के संग
# शाहिद
पुरानी बातें
साथ गुज़ारे कुछ पल
लगा जैसे अभी कल ही कि तो बात है
उस सड़क के किनारे जहाँ हम रात को
बैठा करते थे
वो ज़मीन अभी भी कुछ गीली सी होगी
वो छत से तारों को देखते हुए
ज़िन्दगी के ढेरों सपने जो देखे थे
उस वक़्त कभी नहीं लगा कि ये
सपने ,बस सपने ही रह जायेंगे
वो सुबह भागती हुई बस के पीछे दौड़ना
वो शाम को थके हारे वापस लौटना
वो चाय पे सब के साथ की गयी मस्ती मज़ाक
वो रात के खाने पे की गयी बातें बेबाक
सब कुछ एक पुरानी फिल्म की तरह लगता
है , जो चल रही हो फ्लैशबैक में
आज फिर सुबह उठ कर मै अपनी बस
पकड़ना चाहता हूँ
वापस अपने उन्ही दोस्तों के संग
# शाहिद
रविवार, 4 जुलाई 2010
पेंटिंग
जिंदा तो है वो
चलता फिरता है
बातें करता है
पर वो ख़ुशी उसके चेहरे
से कहीं गायब हो गयी है
जैसे किसी पुरानी पेंटिंग
का रंग उड़ गया हो
अब वो उस जोश से हाथ नहीं मिलाता
जैसे भरोसा उठ गया हो उसका
सब से,और शायद सबसे ज्यादा
उस पेंटिंग को बनाने वाले से
जिसने उसमे तरह तरह के
रंग भरे थे
*शाहिद
चलता फिरता है
बातें करता है
पर वो ख़ुशी उसके चेहरे
से कहीं गायब हो गयी है
जैसे किसी पुरानी पेंटिंग
का रंग उड़ गया हो
अब वो उस जोश से हाथ नहीं मिलाता
जैसे भरोसा उठ गया हो उसका
सब से,और शायद सबसे ज्यादा
उस पेंटिंग को बनाने वाले से
जिसने उसमे तरह तरह के
रंग भरे थे
*शाहिद
बदलाव बहुत ज़रूरी है
बदलाव बहुत ज़रूरी है
रोज़मर्रा कि चीज़े
एक ढर्रे में बंधी ज़िन्दगी
सब कुछ एक रुके हुए
पानी कि तरह हो जाता है
गन्दा और बेकार
किसी दिन जब जोर कि बरसात होती है
कई छोटे बाँध टूट जाते है
पर वो ज़मीन वापस ऐसी हो जाती है
कि कुछ नए पौधे उग सकें
और खुली हवा में सांस ले सके..
इसलिए बदलाव बेहद ज़रूरी है
* शाहिद
रोज़मर्रा कि चीज़े
एक ढर्रे में बंधी ज़िन्दगी
सब कुछ एक रुके हुए
पानी कि तरह हो जाता है
गन्दा और बेकार
किसी दिन जब जोर कि बरसात होती है
कई छोटे बाँध टूट जाते है
पर वो ज़मीन वापस ऐसी हो जाती है
कि कुछ नए पौधे उग सकें
और खुली हवा में सांस ले सके..
इसलिए बदलाव बेहद ज़रूरी है
* शाहिद
शनिवार, 26 जून 2010
अजीब..
एक रात भरी ख़ामोशी से
कोई जाग गया बेहोशी से
थी बात कोई बेमानी सी
जो कह वो गया पुर्जोशी से
अलफ़ाज़ पलटता रह गया मै
कुछ समझ में मेरे आया ना
शायद आधी पूरी हो गयी थी
और आधी रही मदहोशी से
# शाहिद
कोई जाग गया बेहोशी से
थी बात कोई बेमानी सी
जो कह वो गया पुर्जोशी से
अलफ़ाज़ पलटता रह गया मै
कुछ समझ में मेरे आया ना
शायद आधी पूरी हो गयी थी
और आधी रही मदहोशी से
# शाहिद
"हाँ, हो जाएगा"
तुम्हे ना कहना बहुत मुश्किल है
चाहे कितनी भी मुसीबतें उठानी पड़े
पर तुमसे कही बात पूरी करके ही
चैन पड़ता है
किसी भी तरह
एक अधूरा काम जो छूट गया हो
कई दिनों तक तंग करता है
जैसे कुछ उलझ गया हो कहीं
बिना छूटे कहीं जाना मुश्किल हो
कितना आसान होता है कह देना की
"हाँ, हो जाएगा"
पर होने और हो जाने के फर्क में
कभी कभी सालों गुज़र जाते हैं
# शाहिद
चाहे कितनी भी मुसीबतें उठानी पड़े
पर तुमसे कही बात पूरी करके ही
चैन पड़ता है
किसी भी तरह
एक अधूरा काम जो छूट गया हो
कई दिनों तक तंग करता है
जैसे कुछ उलझ गया हो कहीं
बिना छूटे कहीं जाना मुश्किल हो
कितना आसान होता है कह देना की
"हाँ, हो जाएगा"
पर होने और हो जाने के फर्क में
कभी कभी सालों गुज़र जाते हैं
# शाहिद
गुरुवार, 24 जून 2010
बातें कुछ अजीब बातें ...
बातें कुछ चुभने वाली बातें
एक कांटे की तरह
जो पाँव में चुभ
गया हो और रह रह के दर्द देता हो
कभी अनजाने में कही
कभी जान बूझ के सुनाई गयी
जैसे सुनना मजबूरी हो
अनसुनी कर भी दिया
तो दोहराई जाती है
चौराहों पर पोस्टर
बना के लगा दी जाती हैं
घूमती रहती है वो इस कान
से उस कान
कभी तीखी ज़बान में कभी
मीठी गोली की तरह
दी जाती है हर रोज़
बातें कुछ अजीब बातें
# शाहिद
एक कांटे की तरह
जो पाँव में चुभ
गया हो और रह रह के दर्द देता हो
कभी अनजाने में कही
कभी जान बूझ के सुनाई गयी
जैसे सुनना मजबूरी हो
अनसुनी कर भी दिया
तो दोहराई जाती है
चौराहों पर पोस्टर
बना के लगा दी जाती हैं
घूमती रहती है वो इस कान
से उस कान
कभी तीखी ज़बान में कभी
मीठी गोली की तरह
दी जाती है हर रोज़
बातें कुछ अजीब बातें
# शाहिद
बुधवार, 23 जून 2010
कुछ मोती ..
आज कुछ बात तो है
वरना इतना तो मेहरबान नहीं होता कोई
बिना मांगे वो दे गया इतना कुछ
जिसके लिए ना जाने कब से
बैठा था इंतज़ार में की कब
ना जाने कब ऐसा होगा
पर आज शायद कुछ खास दिन ही है
पर मै भी किसी का दिया
उधार नहीं रखता हूँ
मैंने आँखों से कुछ मोती
चुराकर उसकी हाथ में धर दिए
वरना इतना तो मेहरबान नहीं होता कोई
बिना मांगे वो दे गया इतना कुछ
जिसके लिए ना जाने कब से
बैठा था इंतज़ार में की कब
ना जाने कब ऐसा होगा
पर आज शायद कुछ खास दिन ही है
पर मै भी किसी का दिया
उधार नहीं रखता हूँ
मैंने आँखों से कुछ मोती
चुराकर उसकी हाथ में धर दिए
इतवार का दिन...
वो सुबह भी और दिनों जैसी ही थी
इतवार का दिन एक बड़े में शहर में
अलसाई हुई गलियों से होते हुए
मै भी अपनी मंजिल की तरफ जा रहा था
छुट्टी के इस दिन जाने कितनों के
किस्मत के इम्तेहान होते है
उसी में से एक मेरा भी था
भीड़ में रास्ता पूछते हुए लोगों का शोर
या किताब के पन्नो में परेशान चेहरे छुपे हुए
सब उसी तरफ भाग रहे थे जहाँ
मै जा रहा था
घड़ी के कांटे अभी बता रहे थे की थोडा वक़्त
बाकी है
मै वही सड़क के इस पार छांव में बैठ गया
सोचता हुआ की कल क्या हुआ और आज के बाद
क्या बदल जाएगा
तभी सामने से तुम आई
बहुत दिनों बाद मुझे लगा कभी कभी
कुछ अच्छा भी हो जाता है ....
इतवार का दिन एक बड़े में शहर में
अलसाई हुई गलियों से होते हुए
मै भी अपनी मंजिल की तरफ जा रहा था
छुट्टी के इस दिन जाने कितनों के
किस्मत के इम्तेहान होते है
उसी में से एक मेरा भी था
भीड़ में रास्ता पूछते हुए लोगों का शोर
या किताब के पन्नो में परेशान चेहरे छुपे हुए
सब उसी तरफ भाग रहे थे जहाँ
मै जा रहा था
घड़ी के कांटे अभी बता रहे थे की थोडा वक़्त
बाकी है
मै वही सड़क के इस पार छांव में बैठ गया
सोचता हुआ की कल क्या हुआ और आज के बाद
क्या बदल जाएगा
तभी सामने से तुम आई
बहुत दिनों बाद मुझे लगा कभी कभी
कुछ अच्छा भी हो जाता है ....
ग़ज़ल,
ना किसी गली, ना मोड़, ना शहर के लिए
दिल तड़पता भी है तो बस अपने घर के लिए
चाह के भी मै बाक़ी वक़्त कैसे काटूं
चाँद आता भी है आँगन में तो रात भर के लिए
दो पल के साथ से ही खुश हो लेता है दिल
कौन देता है साथ यहाँ उम्र भर के लिए
कल अचानक देखा था उन्हें सामने अपने
य़ू लगा वक़्त थम सा गया था पल भर के लिए
दिल तड़पता भी है तो बस अपने घर के लिए
चाह के भी मै बाक़ी वक़्त कैसे काटूं
चाँद आता भी है आँगन में तो रात भर के लिए
दो पल के साथ से ही खुश हो लेता है दिल
कौन देता है साथ यहाँ उम्र भर के लिए
कल अचानक देखा था उन्हें सामने अपने
य़ू लगा वक़्त थम सा गया था पल भर के लिए
मंगलवार, 1 जून 2010
कि कुछ कह दिया होता...!
मै आज अचानक उस से उसी मोड़ पे मिला
एक अरसे बाद
मुझे लगा वो मुझे पहचान रही थी
शायद वो कुछ बोले यही सोच रहा था मै और
वो भी शायद यही सोच रही थी
इसी इंतज़ार में दूरी कम होती गयी और वो
तिरछी नज़र से मुझे देखते हुए आगे बढ़ गयी
वापस आकर मै सोचता रहा
कि कुछ कह दिया होता
एक अरसे बाद
मुझे लगा वो मुझे पहचान रही थी
शायद वो कुछ बोले यही सोच रहा था मै और
वो भी शायद यही सोच रही थी
इसी इंतज़ार में दूरी कम होती गयी और वो
तिरछी नज़र से मुझे देखते हुए आगे बढ़ गयी
वापस आकर मै सोचता रहा
कि कुछ कह दिया होता
रविवार, 2 मई 2010
बेटा....!
पागलपन सा सवार था उस पर
न जाने क्या क्या कह गया
कुछ पता नहीं चला की किस से कह रहा है ये सब
माँ के आँख से निकला एक आंसू भी नहीं दिखा उसे
जब कुछ शांत हुआ तो एक पीड़ का एहसास
खाने लगा उसे
अपनी कही गयी बाते वापस लेना चाहता था
जैसे एक फोड़ा फूट जाता है और उसका मवाद
मन घिनौना सा कर देता है कुछ
वही एहसास उसके अंदर बढ़ता जा रहा था
गुस्से में कही बाते ,कह तो दी जाती है
पर उसका वजूद रह जाता है हमेशा के लिए
यही सोचते सोचते उसको नींद आ गयी
सुबह गीले तकिये को माँ ने धूप में सुखाया
और उसको गले लगा के बोली
बेटा चलो खाना खा लो.
न जाने क्या क्या कह गया
कुछ पता नहीं चला की किस से कह रहा है ये सब
माँ के आँख से निकला एक आंसू भी नहीं दिखा उसे
जब कुछ शांत हुआ तो एक पीड़ का एहसास
खाने लगा उसे
अपनी कही गयी बाते वापस लेना चाहता था
जैसे एक फोड़ा फूट जाता है और उसका मवाद
मन घिनौना सा कर देता है कुछ
वही एहसास उसके अंदर बढ़ता जा रहा था
गुस्से में कही बाते ,कह तो दी जाती है
पर उसका वजूद रह जाता है हमेशा के लिए
यही सोचते सोचते उसको नींद आ गयी
सुबह गीले तकिये को माँ ने धूप में सुखाया
और उसको गले लगा के बोली
बेटा चलो खाना खा लो.
शनिवार, 1 मई 2010
अपने जैसा........!
कसमसा के रह गया मै
कुछ कहना चाहता था , नहीं कह पाया
बात आई गयी हो गयी
टीस एक रह गयी मन में फिर भी
गुस्सा दबा रह गया मन में ही
इसी तरह इकठ्ठा की गयी चीज़ें
भारी कर देती है दिल मेरा
कभी कभी मन करता है निकल दूं सारा गुस्सा
सारा ज़हर जो रगों में दौड़ रहा है
और फिर से एक मासूम बच्चा बन जावूँ
फिर से नयी कलम से कुछ लिखू नया
फिर से इन आँखों से कुछ पुराना पढूं
और इसी तरह जो बदल नहीं प् रहा है उसे
किसी तरह से बदल के मै अपने जैसा हो जावूँ
कुछ कहना चाहता था , नहीं कह पाया
बात आई गयी हो गयी
टीस एक रह गयी मन में फिर भी
गुस्सा दबा रह गया मन में ही
इसी तरह इकठ्ठा की गयी चीज़ें
भारी कर देती है दिल मेरा
कभी कभी मन करता है निकल दूं सारा गुस्सा
सारा ज़हर जो रगों में दौड़ रहा है
और फिर से एक मासूम बच्चा बन जावूँ
फिर से नयी कलम से कुछ लिखू नया
फिर से इन आँखों से कुछ पुराना पढूं
और इसी तरह जो बदल नहीं प् रहा है उसे
किसी तरह से बदल के मै अपने जैसा हो जावूँ
गुरुवार, 15 अप्रैल 2010
गवाह....
नहीं उड़ते परिंदे ये डर किसका है;
खौफ आँखों में है पर दिखाई नहीं देती.
खुशबू फूलों कि छीन ले गया है जो
उसकी आवाज़ भी अब कहीं सुनाई नहीं देती.
तंज़ बातों में ये अचानक नहीं आया;
कुछ बातें होती है जो बताई नहीं जाती.
नज़रें ढूंढती है अब भी किसी के आने कि राह
जाने क्यों कुछ गलतियाँ दोहराई नहीं जाती.
चाहे कितना भी बरपा हो शोर तुम्हारे अंदर
लोग बहरे है शहर के उन्हें सुनाई नहीं देती.
"शाहिद" गवाह है कितने ही किस्सों का;
कुछ कहानियां तमाम उम्र भुलाई नहीं जाती.
खौफ आँखों में है पर दिखाई नहीं देती.
खुशबू फूलों कि छीन ले गया है जो
उसकी आवाज़ भी अब कहीं सुनाई नहीं देती.
तंज़ बातों में ये अचानक नहीं आया;
कुछ बातें होती है जो बताई नहीं जाती.
नज़रें ढूंढती है अब भी किसी के आने कि राह
जाने क्यों कुछ गलतियाँ दोहराई नहीं जाती.
चाहे कितना भी बरपा हो शोर तुम्हारे अंदर
लोग बहरे है शहर के उन्हें सुनाई नहीं देती.
"शाहिद" गवाह है कितने ही किस्सों का;
कुछ कहानियां तमाम उम्र भुलाई नहीं जाती.
सोमवार, 1 मार्च 2010
बस एक ख्याल...
एक अजीब ख्याल है वो
जैसे दोबारा कोई निगाह
डाले और हर दुसरे पल वो अलग नज़र आये
औरों से बिलकुल जुदा
एक पुरसुकून सी आवाज़
जब कहीं से आये तो
यूँ लगे कि मौसम अचानक खुशनुमा हो गया हो
एक फरेबी शक्ल का नकाब
जो छिपाए रखता है सबसे
एक हकीकत जो उतनी ही सच है
और उतनी ही कडवी
पर फिर भी कुछ है
जो उलझाए रखता है हर घड़ी हर वक़्त
बस एक ख्याल...
जैसे दोबारा कोई निगाह
डाले और हर दुसरे पल वो अलग नज़र आये
औरों से बिलकुल जुदा
एक पुरसुकून सी आवाज़
जब कहीं से आये तो
यूँ लगे कि मौसम अचानक खुशनुमा हो गया हो
एक फरेबी शक्ल का नकाब
जो छिपाए रखता है सबसे
एक हकीकत जो उतनी ही सच है
और उतनी ही कडवी
पर फिर भी कुछ है
जो उलझाए रखता है हर घड़ी हर वक़्त
बस एक ख्याल...
रविवार, 28 फ़रवरी 2010
वो जो कहता था खुदा पूरी करता है मुरादें सबकी
आज आ बैठा हैं मैखाने में खुदा खुदा करके
बेमतलब की बातों में क्या रखा है "शाहिद"
अब समझ आया है हर चीज़ का तजरबा करके
अब न वो मंज़र है, न वो लोग, न कैफियत है बाकी
सिर्फ वही दर्द है जो उठ पड़ता है रह रह के
कभी समंदर ,कभी तूफ़ान ,कभी हवाओं से
अब थक गया है उसका जी सभी से लड़ लड़ के
आज आ बैठा हैं मैखाने में खुदा खुदा करके
बेमतलब की बातों में क्या रखा है "शाहिद"
अब समझ आया है हर चीज़ का तजरबा करके
अब न वो मंज़र है, न वो लोग, न कैफियत है बाकी
सिर्फ वही दर्द है जो उठ पड़ता है रह रह के
कभी समंदर ,कभी तूफ़ान ,कभी हवाओं से
अब थक गया है उसका जी सभी से लड़ लड़ के
रविवार, 21 फ़रवरी 2010
शनिवार, 30 जनवरी 2010
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